बात 1 दिसंबर 2009 की है....जगह राजधानी का चारबाग रेलवे....सूरज अपनी लालिमा बिखेर रहा था तो वहीं हाथों में लाठी-डंडे लिए किसान ट्रेन से उतरकर स्टेडियम की तरफ बढ़ रहे थे। उनकी अगुवाई कद-काठी में लंबा-चौड़ा एक शख्स जो धोती-कुर्ता में था, सिर पर पगड़ी थी वह कर रहा था। वह कोई और किसानों के नेता महेंद्र सिंह टिकैत थे। किसानों की समस्याओं को लेकर वे पश्चिमी यूपी से कूचकर राजधानी पहुंचे थे। स्टेडियम में पैर रखने की जगह नहीं थी। यूपी का ऐसा कोई हिस्सा नहीं था जहां से नुमाइंदगी करने वाले किसान इस प्रदर्शन में न पहुंचे हों। एक तरफ ईंटों से बने चूल्हे पर औरतें खाना बना रही थीं तो दूसरी तरफ चौतरफा किसानों से घिरे महेंद्र सिंह टिकैत हुक्का गुड़गुड़ाने लगे थे। वे देशभर के किसानों के नेता थे।
सीनियर जर्नलिस्ट प्रदीप कपूर कहते हैं कि महेंद्र सिंह कभी सरकार के पास नहीं जाते थे, सरकार उनके पास आया करती थी। जब वे लखनऊ प्रदर्शन करने पहुंचे थे तो उनकी शाम तक सभी मांगे मान ली गई थी और रात होने से पहले किसानों का वह रेला अपने अपने घरों की ओर कूच कर गया था।
वर्तमान में भी कृषि बिलों को लेकर उत्तर प्रदेश में किसान आंदोलित हैं। लेकिन उत्तर प्रदेश में यह आंदोलन सिर्फ पश्चिमी यूपी तक ही सीमित है। कहा जा रहा है वर्तमान में यूपी में कोई ऐसा किसान नेता नहीं है जिसमें महेंद्र सिंह टिकैत जैसी करिश्माई कूवत हो जो देशभर के किसानों को एकजुट कर सके।
यूपी में किसान आंदोलन को धार क्यों नहीं मिल रही है?
22 सितंबर को शामली में कुछ किसानों ने इकट्ठा होकर मोदी सरकार द्वारा लाए गए किसान विधेयकों के खिलाफ जिलाधिकारी को ज्ञापन दिया और अपने-अपने ठिकाने पर लौट गए। पश्चिमी यूपी के मेरठ, सहारनपुर से भी कुछ ऐसी ही खबरें आयी। लेकिन बुंदेलखंड, पूर्वी यूपी और मध्य यूपी से ऐसी कोई खबर नहीं आई कि किसान आंदोलनरत है। आखिर ऐसा क्यों है? क्या भारतीय किसान यूनियन की साख गिरी है। पश्चिमी यूपी के सीनियर जर्नलिस्ट बृजेश जैन कहते हैं कि महेंद्र सिंह टिकैत की मृत्यु के बाद से किसानों का विश्वास बहुत भाकियू पर रह नहीं गया है।
पश्चिमी यूपी के कुछ जिलों में ही उसका प्रभाव रह गया है। भले ही इनका हर जिले में संगठन है, लेकिन अब इस संगठन से ऐसे ही लोग जुड़ते हैं जिन्हें राजनीति में जिंदा रहना है। यह भले किसी आंदोलन के नाम पर हजार लोग जुटा लें, लेकिन सच यही है कि अब वह बात बची नहीं है। इसके पीछे का कारण वह बताते है कि भाकियू के नेताओं की राजनीतिक महत्वाकांक्षा है। यह अलग बात है कि इसका फायदा उन्हें कभी मिला नही पश्चिमी यूपी में आज का युवा पढ़ा लिखा है, डिजिटली मजबूत भी है। वह सब कुछ सोच समझ और देख रहा है। यही वजह है कि युवा किसान भाकियू से नहीं जुड़ रहा है।
सीनियर जर्नलिस्ट प्रदीप कपूर कहते है कि 70 के दशक में एक कृषि मंत्री गेंदा सिंह हुआ करते थे। वह पूर्वांचल से आते थे। वह इतने किसान हितैषी थे कि उनका नाम लोगों ने गन्ना सिंह रख दिया था। यही नही उन्होंने किसानों के लिए सरकार से इस्तीफा तक दे दिया था। आज चाहे पूर्वांचल हो या बुंदेलखंड या पश्चिमी यूपी हो या मध्य यूपी किसानों का नेतृत्व करता तो फिलहाल कोई दिखाई नहीं दे रहा है। ऐसे में किसान आंदोलन की धार कैसे मिले।
किसान आंदोलित क्यों नही हैं?
सीनियर जर्नलिस्ट बृजेश शुक्ला कहते हैं कि यह पूरा आंदोलन राजनीतिक है। आने वाले दिनों में यह साबित भी हो जाएगा। अगर विधेयक से किसान परेशान होता तो अपने आप सड़क पर आ जाता। मंडियों में किसानों का शोषण होता है, यह किसी से छिपा नही है। क्या अभी किसान मंडी से अलग अपनी फसल नहीं बेच रहा है? यूपी का किसान इस बिल से परेशान नहीं है, क्योंकि उसे एमएसपी से कोई लेना देना नहीं है। जब उसकी उपज बिना किसी चिकचिक के बिक जा रही है तो वह क्यों एमएसपी के चक्कर में पड़ेगा? यही हाल अभी भी है। किसानों के बिल में कुछ नया नही है। सब पहले से ही चल रहा था। दरअसल, यूपी के किसान वेट एंड वाच की स्थिति में है।
जातीय खांचों में बंट गए है किसान, इसलिए है चुप्पी
सीनियर जर्नलिस्ट रतनमणि लाल उदाहरण देते हैं कि 2016 में जब नोटबंदी हुई तो सामने यूपी का चुनाव था। विपक्ष ने सोचा भाजपा बुरी तरह हारेगी लेकिन हुआ उल्टा। दरअसल, लोगों के मन में मोदी और योगी की ऐसी छवि बन गयी है कि भाजपा का विधायक गलत कर सकता है, भाजपा का सांसद गलत कर सकता है लेकिन मोदी और योगी गलत नहीं कर सकते हैं। यही किसानों के साथ है।
सीनियर जर्नलिस्ट बृजेश जैन कहते हैं कि 90 के दशक में जब मंडल और कमंडल की राजनीति शुरू हुई तो भाजपा और आरएसएस ने उसी के सहारे गांव तक पैर पसारा। बसपा को किसानों से मतलब रहा नहीं, सपा में किसानों को बहुत महत्व नहीं दिया गया। जबकि कांग्रेस के पास ऐसा कोई लीडर नहीं था जो किसानों को जोड़ सके। भाजपा ने हिंदुत्व का कार्ड खेला और 2014 फिर 2019 में सबको एकजुट कर सरकार बनाई। वहीं धीरे-धीरे जो किसान संगठन थे, वह किसान कम राजनीतिक संगठनों में ज्यादा तब्दील हो गए। वह सरकार के साथ मोल भाव करने लगे यह बात किसानों को समझ आ गयी है। अब किसान जातीय खांचों में बंट चुका है। यही वजह है कि किसान अब एकजुट नहीं है।
महेंद्र सिंह टिकैत के बाद अजित सिंह क्यों नहीं बन सके किसानों के नेता?
यूपी की राजनीति में किसान अपनी समस्याओं के लिए तो महेंद्र सिंह टिकैत के पास जाते थे, लेकिन जहां वोट देने की बात होती तो वह अजित सिंह की रालोद को चुनते थे। लेकिन सवाल फिर वही उठता है कि आखिर अजित सिंह किसानों के नेता क्यों नही बन पाए? रतनमणि लाल कहते हैं कि अजीत सिंह कभी किसानों के नेता बनना भी नहीं चाहते थे। वह हमेशा जाट नेता के तौर पर पहचाना जाना चाहते थे। दरअसल, अपनी सीटों के बल पर वह किसी भी सरकार में अपनी जगह बना लिया करते थे। वह जानते थे कि जातीय राजनीति ही कारगर है। साथ ही जब भी वह केंद्र में मंत्री बने किसानों के लिए कुछ ऐसा नहीं किया जिससे वह किसानों के हितैषी के रूप में जाने जाए। यही वजह है कि समय के साथ वह खत्म से हो गए। हाल यह रहा कि पिछले चुनाव में वह अपने गढ़ में भी हार गए।
शामली के किसान बोले बिल से होगा नुकसान,बिजनौर और सिद्धार्थनगर के किसान बोले हमें तो पता ही नही
शामली का टिटौली गांव में दोपहर में किसान यशपाल के घर कई लोग इकट्ठा हैं। केंद्र सरकार द्वारा हाल ही में पारित बिल पर बात चल रही है, साथ ही हुक्के से लगातार धुआं भी निकल रहा है। किसान यशपाल चिंता जाहिर करते हुए कहते हैं कि सरकार एमएसपी का कानून बिल में जोड़ दे तो हमें कोई दिक्कत नहीं है। ऐसे ही सरकार धीरे धीरे एमएसपी खत्म कर देगी। वहीं किसान योगेश कहते हैं कि शामली जिला गन्ना मंत्री का जिला है। लेकिन सबसे ज्यादा यहां ही गन्ना किसान बकाया को लेकर परेशान है। अभी प्रदर्शन करो तो फर्जी मुकदमा झेलो। जबकि शुगर मिल वालों पर कोई कार्रवाई नहीं है।
बिजनौर के शिवकुमार कहते हैं कि हम पीढ़ियों से खेती करते आ रहे हैं। लेकिन, अभी जो बिल संसद में पास हुए है उसके बारे में कोई जानकारी नहीं है न ही कोई नेता हमें बताने आया है। वह कहते हैं कि हमें तो यह भी नही मालूम कि 25 सितंबर को कोई आंदोलन है। बहरहाल, हमारे जिले में मंडी समिति नहीं है। अगर वह बन जाए तो फायदा मिलेगा। ऐसा ही हाल पूर्वांचल के जिले सिद्धार्थनगर का है। जहां के किसानों को न तो बिल के बारे में पता है न ही किसी आंदोलन के बारे में। हालात यह है कि वह एमएसपी भी नही जानते हैं। ऐसे जमीनी हालात हैं।
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